नीमच शहर के पास की एक तंग बस्ती में रमेशदास बैरागी अपनी तीन बेटियों और सबसे छोटे बेटे के साथ रहते थे, रमेश मंदिर मे सेवा करते और पत्नी के साथ सिलाई करके परिवार का गुजारा करते थे। एक दिन अचानक रमेश की तबियत बिगड़ गई और फिर बिगड़ती चली गई। उन्होंने पूरी तरह बिस्तर पकड़ लिया। घर का मुखिया बिस्तर पर आने से परिवार दोहरे संकट मे घिर गया एक तो आमदनी का जरिया बंद हो गया और दूसरा इलाज मे काफी खर्च हो रहा था, सो अलग, बच्चों का स्कूल छूट गया, परिवार दानेदाने को मोहताज हो गया, रात दिन मजदूरी करके जैसे-तैसे दिन बीत रहे थे।एक दिन बस्ती की आंगनवाडी कार्यकर्ता यशोदा दीदी ने परिवार की किशोरी बालिकाओं दीप्ती और पूजा को सबला योजना के अर्तंगत वार्ड मे बनाए षाला त्यागी बालिकाओ के ’’सखी सहेली’’ समूह से जोड़ा। उन्हें हिम्मत दिलाई और बताया वे चाहें तो इस योजना में निःशुल्क सिलाई प्रशिक्षण कर सकती हैं। अपना काम शुरू कर सकती हैं। दीप्ती और पूजा दोनों बहनें सखी सहेलियां बन गयीं और उन्होंने सबसे पहले जिले की विक्रम सींमेंट फैक्ट्री मे समूह के साथ कालीन बुनने का काम सीखा, और साथ-साथ अपने व्यक्तित्व के विकास का पाठ भी सीखती गयीं।
कारपेट बुनने की कला सीखने के दौरान रोज मजदूरी भी मिलती रही जिससे परिवार चलने लगा। दीप्ती को इससे संतोष नहीं था, इसलिए उसने सबला योजना के तहत विधिवत सिलाई का प्रशिक्षण प्राप्त किया और घर पर जोर-शोर से पिताजी का अधूरा काम शुरू कर दिया, अपने साथ समूह की अन्य किशोरियों को भी जोड़ा।
पैसा तो आने लगा पर कमाई की धुन में पढ़ाई पीछे छूट गई। यशोदा को यह बात अखर रही थी। उसने मासिक बैठकों में धीरे-धीरे दीप्ती और पूजा को पुनः पढ़ाई आरंभ करने के लिये प्रेरित किया और अब दीप्ती नियमित शासकीय कन्या शाला में कक्षा 9 वीं में पढ़ रही है और पूजा ने 10वीं का फार्म भरा है। दीप्ती अपनी और अपने छोटे भाई-बहन की फीस अपनी कमाई से भरती है।
उसके पापा आज भी बिस्तर पर ही है पर उनकी दोनों बेटियों ने मां के साथ मिलकर परिवार का दायित्व अपने कंधों पर उठाया है और सबला योजना के कारण वह इसे बोझ नहीं समझती है क्योंकि घर से बाहर निकलकर उनकी दुनियां विस्तृत हो गई। उन्हें अच्छे खानपान, स्वास्थ्य, स्वच्छता इनका ज्ञान हैं और दोनों को उनके अस्तित्व का एहसास है।